विशालाक्षी मंदिर, काशी के पवित्र मणिकर्णिका घाट के पास, गंगा नदी के किनारे मीर घाट पर स्थित है, जिसकी नजदीकी काशी विश्वनाथ मंदिर से करीब ही है। विशालाक्षी यानी ‘‘बड़ी या विशाल आंखों वाली’। इसे मणिकर्णिका शक्तिपीठ के नाम से भी जानते हैं जिनका अर्थ है ‘‘कानों की मणि’’, इस स्थान पर देवी सती के कान के कुण्डल गिरे थे, जिससे यहां मणिकर्णिका शक्तिपीठ का उदय हुआ। मान्यता है कि यहां माता सती का मुख भी गिरा था और विशालाक्षी मंदिर की गिनती 51 शक्तिपीठों और अठारह महाशक्तिपीठों में होती है। विशालाक्षी गौरी मंदिर नाम से प्रचलित इस मंदिर में हिंदू धर्म की गहरी आस्था है।
भगवान शिव और देवी सती का उनके पिता दक्ष द्वारा आयोजित किए गए यज्ञ में आमंत्रित न किए जाना और जब माता सती इस बात का कारण जानने बिना बुलाए यज्ञ में पहुंची तो राजा प्रजापति दक्ष द्वारा भगवान शिव का अपमान और अपशब्द कहे जाना उनके लिए असहनीय बात थी, इससे आहत होकर उन्हें उसी यज्ञ कुंड की वेदी पर अपनी आत्मशक्ति के प्रताप से खुद को अग्नि को समर्पित कर दिया और अपनी प्राणलीला समाप्त कर ली। इस घटना की जानकारी जब भगवान शिव को हुई तब सृष्टि में उनके क्रोध के कारण हाहाकार मच गया। राजा दक्ष को सजा देने के बाद भगवान शिव देवी का सती का मृत शव लेकर समस्त लोकों में विचरण करने लगे। उनकी ऐसी बदहवास हालत देखकर भगवान विष्णु ने माता सती के शव को अपने सुदर्शन चक्र से 51 भागों में विभाजित कर भारतीय उपमहाद्वीप में जहां तहां गिरा दिया। जहां जहां ये भाग गिरे वहां उसी अंग के नाम अनुसार किसी न किसी विशेष देवी का उद्भव हुआ, और यह स्थान शक्तिपीठ नाम से प्रसिद्ध हुए। ऐसा स्थान जहां असीमित ऊर्जा का केंद्र बिन्दु है और समस्त संसार को शक्तिपीठों से ऊर्जा की प्राप्ति हो रही है।
जब भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से देवी सती के मृत शरीर के भाग किए तब उनके जो कानों के कुंडल थे वे वाराणसी के इसी स्थान पर गिरे इस वजह से इन्हें मणिकर्णिका शक्तिपीठ या विशालाक्षी शक्तिपीठ कहते हैं। देवी सती के कानों के कुंडल या बाली के ही नाम पर इस शक्तिपीठ का नाम मणिकर्णिका से मशहूर है।
विशालाक्षी मंदिर की बनावट व स्थापत्य कला समृद्ध भारतीय का परिचायक है, इस मंदिर की डिजाइन यहां की सांस्कृतिक और आध्यात्मिक परंपरा को दर्शाता है जिसमें उत्कृष्ट मूर्तियों से सुशोभित एक विशेष गोपुरम जिसे मंदिर टॉवर के नाम से जानते हैं। इस मंदिर में हिंदू पौराणिक कथाओं का चित्रण करते अलंकृत स्तंभ और मेहराबों की छवि देखने को मिलती है।
मुख्य गर्भग्रह में देवी की विशाल और भव्य प्रतिमा विराजमान है। जो अत्यधिक शांति प्रदान करता है। मंदिर के गर्भग्रह में विशालाक्षी देवी की दो मूर्तिया स्थापित हैं जिसमें एक मूल प्राचीन मूर्ति है और दूसरी तमिल अनुयायियों द्वारा मंदिर के जीर्णोद्धार के समय स्थापित की गई थी।
इस मंदिर में आदि शंकराचार्य द्वारा एक श्री यंत्र स्थापित किया गया था जो आठवीं शताब्दी में यहां आए थे।
मंदिर के मुख्य द्वार पर बहुत ही आकर्षक तरीके से देवी लक्ष्मी कमल आसन पर विराजित अत्यधिक सुदंर दिखाई देती हैं जिनके दोनों ओर हाथी बने हैं।
मंदिर के बाहरी तरफ कक्ष में शिवलिंग, नंदी, गणेश जी की मूर्ति और आदि शंकराचार्य की प्रतिमांए स्थापित हैं। मंदिर में नवग्रहों की प्रतिमा, बारह राशियों के भगवान और भगवान शिव व माता पार्वती के विवाह की छवियां भी सुशोभित होती हैं।
इस मंदिर की वास्तुकला में अंलकृत साज सज्जा और शांति प्रदान करती शोभा तन और मन के साथ आध्यात्मिक शक्ति को और भी अधिक बल प्रदान करती है।
दिन | मंदिर खुलने का प्रातःकाल समय | मंदिर पट बंद होने का रात्रि में समय |
सोमवार | सुबह 5 बजे | रात 10 बजे |
मंगलवार | सुबह 5 बजे | रात 9ः40 बजे |
बुधवार | सुबह 5 बजे | रात 10 बजे |
गुरूवार | सुबह 5 बजे | रात 10 बजे |
शुक्रवार | सुबह 5 बजे | रात 9ः40 बजे |
शनिवार | सुबह 5 बजे | रात 10 बजे |
रविवार | सुबह 5 बजे | रात 10 बजे |
विशालाक्षी मंदिर में वर्ष भर कई सारे उत्सवों का आयोजन होता है। जहां पास में ही गंगा स्नान कर मंदिर में पूजा पाठ, अनुष्ठान और देवी से जुड़े मंत्रों की आराधना करना अत्यधिक शुभ फल प्रदान करने वाला होता है।
मंदिर से जुड़े दो उत्सव बेहद महत्वपूर्ण है पहला नवरात्रि जो वर्ष में दो बार आती है, चैत्र और आश्विन माह में यह त्यौहार 9-10 दिनों तक मनाया जाता है जिसमें मां की विभिन्न तरह से पूजा अर्चना की जाती है। आश्विन नवरात्रि के आखिर में दशहरा पर्व उत्सव मनाया जाता है, ऐसे पर्व पर यहां देवी दुर्गा के महिषमर्दिनी रूप की जीत मनाता है जब मां दुर्गा ने उग्र रूप में महिषासुर का संहार किया था और चैत्र नवरात्रि का समापन राम नवमी से होता है, इसमें माता के नौ दिनों के इस त्यौहार में वाराणसी के एक एक देवी के दर्शनों के दौरे हेतु नौ मंदिर सर्किट का नाम सुनने को मिलता है जिसमें इस मंदिर का नाम पांचवें दिन होता है। नौ मंदिरो का वर्णन काशी महात्मय ग्रंथ में बताया गया है।
विशालाक्षी मंदिर या मणिकर्णिका शक्तिपीठ का वार्षिक उत्सव भारतीय हिंदी महीने के अनुसार भाद्रपद के कृष्ण पक्ष की तृतीया तिथि को मनाया जाता है जिसे कजली तीज भी कहा जाता है। इस दिन सभी महिलाएं कजली नाम से लोकगीत गाने की परम्परा को निभाती है। कजली लोकगीत में वर्षा ऋतु से संबंधित गाने गाए जाते हैं, इस पर्व को मनाने का उद्देश्य बहनों द्वारा अपने भाई की सुख समृद्धि व कल्याण में वृद्धि के लिए गाया जाता है।
वाराणसी का यह शक्तिपीठ छह गुना योग का प्रतीक माना जाता है, जिसे वाराणसी के इन छह स्थलों पर जाकर किया जाता है। इन छह में से पहला विश्वनाथ मंदिर जो भगवान शिव का समर्पित बनारस का प्रमुख मंदिर है, विशालाक्षी मंदिर, मां गंगा नदी, काल भैरव मंदिर जो वाराणसी की संरक्षक देव है और विशालाक्षी शक्तिपीठ के भैरव के रूप में जाने जाते हैं, धुंडिराज मंदिर जो भगवान गणेश को समर्पित है और सबसे आखिरी में दंडपाणि मंदिर जो भगवान शिव का मंदिर है। इन छह मंदिरों की गिनती बनारस के विशेष मंदिरों में होती है।
वाराणसी में अवस्थित विशालाक्षी मंदिर, देवी मां के आंखों से जुड़े भारत के तीन मंदिर समूहों में से एक है जिसकी प्राचीनता किसी से छिपी नहीं है। पहला मंदिर मदुरई में मीनाक्षी मंदिर से जाना जाता है जिसका अर्थ होता है मीन यानी मछली जैसी आंखों वाली। दूसरा मुख्य मंदिर कामाक्षी मंदिर हैं जिसका अर्थ प्रेम पूर्ण नयनों वाली मां होता है। विशालाक्षी मंदिर का अर्थ विशाल या चौड़ी, बड़ी आखों वाली मां का मंदिर कहलाता है।
तीनों ही मंदिर मीनाक्षी, कामाक्षी और विशालाक्षी मां दुर्गा के प्रसिद्ध मंदिर और महत्वपूर्ण शक्तिस्थल माने जाते हैं।
अनादिकाल से इस शक्तिपीठ की महिमा का बखान होता रहा है, 51 शक्तिपीठों में से एक यह शक्तिपीठ अपने नाम के अनुसार माता सती के कान के कुंडलों के कारण जाना जाता है जहां अमूर्त देवी मणिकर्णिका मूर्त रूप में दर्शन देती हैं। पौराणिक ग्रंथों में वर्णित है कि महाप्रलय आने के बाद भी वाराणसी शहर शक्तिपीठ की वजह से सुरक्षित रहेगा।
1. काशी विश्वनाथ मंदिरः भारत के प्रमुख शिव मंदिरों और प्रमुख ज्योतिर्लिंगों मे से एक काशी विश्वनाथ, विशालाक्षी मंदिर से थोड़ी ही दूरी पर है जहां आप स्थानीय मदद से पहुंच सकते हैं। प्रमुख ज्योतिर्लिंग और शक्तिपीठ का ऐसा दुर्लभ संयोग बनारस की प्रतिष्ठा में चार चांद लगाता है।
2. बनारस के प्रमुख घाटः गंगा किनारे बसे वाराणसी की बात ही विशेष है जहां प्रमुख घाटों की रौनक देखते बनती हैं। बनारस के प्रत्येक घाट की अपनी विशेषताएं और खासियतें हैं, जहां गंगा आरती की भव्यता से लेकर दाह संस्कार अनुष्ठानों की रीति रिवाजों को देखते हुए उनकी खामोशी महसूस कर सकते हैं। दशाश्वमेध घाट की गंगा आरती विश्वप्रसिद्ध है।
3. भैरव मंदिरः काल भैरव मंदिर के दर्शन करें, कहते हैं कि बनारस में आएं तो यहां के संरक्षक देवता के दर्शन किए बिना यहां की तीर्थयात्रा अधूरी मानी जाती है इसलिए काल भैरव मंदिर में दर्शन करना न भूलें।
4. सारनाथ स्मारक : वाराणसी यात्रा पर जांए तो विशालाक्षी मंदिर दर्शन करने के साथ ही सारनाथ बौद्ध धर्म का प्रमुख स्मृति स्थान भी घूमने जा सकते हैं। साxxरनाथ वो स्थान है जहां महात्मा बुद्ध ने अपना पहला प्रवचन दिया था।
5. भारत माता मंदिरः इस मंदिर का निर्माण करीब 1936 में बाबू शिव प्रसाद गुप्त ने कराया था जो एक स्वतंत्रता संग्रांम सेनानी थे। भारत माता को समर्पित यह मंदिर देश में मौजूद विशेष मंदिरों में से एक है जहां इसकी स्थापत्य और विशेषताओं को देखने के लिए दुनिया भर से लोग आना पसंद करते हैं। इस मंदिर में किसी देवी या देवता की मूर्ति नहीं वरन् संगमरमर पर उकेरी हुआ भारत का नक्शा है। यह दिन सुबह 9 बजे रात 8 बजकर 30 मिनट तक खुला रहता है।
बनारस पहुंचने के लिए यहां के लाल बहादुर शास्त्री इंटरनेशनल एयरपोर्ट जो मंदिर से करीब 25 किमी की दूरी पर है जिसे बाबतपुर हवाई अड्डा भी कहते हैं। एयरपोर्ट से मंदिर तक पहुंचने के लिए स्थानीय टैक्सी या अन्य परिवहन साधनों के माध्यम से परिवहन सेवाओं का उपयोग कर सकते हैं।
वाराणसी जंक्शन, बनारस का प्रमुख रेलवे स्टेशन है जहां से देश के विभिन्न प्रमुख जगहों से रेल सेवा बेहतर माध्यम में उपलब्ध है, इसकी मंदिर से दूरी लगभग 3 किमी है जहां पहुंचने के लिए स्थानीय वाहनों की अच्छी उपलब्धता रहती है।
बनारस शहर की सड़क माध्यम से बेहतर कनेक्टिविटी है जहां आप अपने वाहन या सरकारी, निजी वाहनों की मदद से आसानी से पहुंच सकते है और मंदिर तक पहुंचने के लिए स्थानीय वाहनों की मदद से जाया जा सकता है।
बनारस का यह प्रमुख शक्तिपीठ परंपराओं और धार्मिकताओं के परस्पर मिलन का गहरी अनुभूति प्रदान करते हैं। अपनी अवस्थिति महत्व और रोचक तथ्यों से यह मंदिर वाराणसी जो शिव नगरी है यहां देवी शक्ति के महत्वपूर्ण स्थान के रूप में भी स्थापित करता है। ऐतिहासिक नगरी काशी का यह परिप्रेक्ष्य प्राचीन और आधुनिक बनारस के संयोग को दर्शाता है जिसमें देवी मां के शक्तिपीठ की मौजूदगी अपार ऊर्जा का संचार करती हुई भक्तिमय वातावरण बढाते हुए जीवन की सत्यता के नजदीक ले जाती है।