पूर्वांचल भारत का प्रमुख त्योहार छठ भगवान सूर्य के साथ ही देवी ऊषा को समर्पित हैं, जिन्हें छठी मईया भी कहते हैं, जो महापर्व है। यूं तो छठ की शुरूआत बिहार राज्य से मानते हैं लेकिन अब यह उत्तर भारत के साथ ही झारखंड, छत्तीसगढ, दिल्ली और नेपाल जैसी जगहों पर भी उत्साह के साथ मनाया जाता है और सिर्फ यहीं नहीं इस त्यौहार की लोकप्रियता के चर्चे विदेशों तक भी गूंजते हैं। चार दिनों तक चलने वाले इस पर्व में भीड़ का उत्साह देखते बनता है। छठ शब्द के अनुसार ही यह त्योहार दिवाली के छह दिन बाद कार्तिक शुक्ल पक्ष की षष्ठी में मनाया जाता है, इसे सूर्य षष्ठी नाम से भी जानते हैं।
इस शुभ सूर्योपासना के त्यौहार के बारें में और अधिक विस्तार से जानते हैं इस आर्टिकल में, जिसमें इसकी पौराणिक कहानी, महत्व और रोचक तथ्यों को भी शामिल करेंगे।
भारत के त्यौहार और रीति रिवाजों से जुड़ी कई कहानियों के आदर्श हमें सुनने को मिलते हैं, जहां वर्ष भर देश के अलग अलग हिस्सों में कई परंपराए और त्यौहार बहुत ही हर्ष, उत्साह और उमंग के साथ मनाए जाते हैं, ऐसे ही छठ त्यौहार जिसकी खुशी और भव्य झलक देखकर हर किसी का तन मन प्रफुल्लित हो उठता है। इस त्यौहार से जुड़ी पौराणिक कहानियों की ओर रूख करते हैं।
संस्कृत महाकाव्य द्रौपदी में छठ पूजा के अनुष्ठान से जुड़ी समान विधि देखने को मिलती है। जिसमें लिखा है कि पांडवों के वनवास के दौरान द्रौपदी दुखी रहने लगीं क्योंकि पांडव विषम परिस्थितियों में थे, युद्धिष्ठिर समस्याओं के समाधान निकालने को ऋषि धौम्य के पास गए।
उपाय स्वरूप ऋषि धौम्य ने युधिष्ठिर को बताया कि ‘‘धरती पर अन्न भगवान सूर्य के ही प्रतिरूप हैं जो इस धरा पर जीवन संचालन करने के लिए उनका सहयोग करते हैं।’’ जो भी लोग कार्तिक मास शुक्ल पक्ष की षष्ठी और सप्तमी तिथि को पवित्र मन से भगवान सूर्य की आराधना करते हैं और उनके नामों को जपते हैं उन्हें धन, धान्य, रत्न, पुत्र और बुद्धि बल प्राप्त होता है।
धौम्य ऋषि से यह सुनकर, युद्धिष्ठिर ने सूर्य देव की उपासना आरंभ की। उनकी निष्ठा और भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान सूर्य युद्धिष्ठिर के समक्ष प्रकट हुए और उन्हें एक चमत्कारी ताँबे का पात्र भेंटस्वरूप प्रदान किया और वरदान दिया कि यह पात्र उनके लिए चार प्रकार के भोजन पकाएगा और पांडवों की पत्नी द्रौपदी के भोजन समाप्त होने तक चलेगा।
इस वरदान के पश्चात पांडवों की अपनी अनेक बाधाओं पर जीत प्राप्त हुई और अपने राजपाठ को पुनः स्थापित किया। इसी वजह से मान्यता है कि छठ पूजा पर भगवान सूर्य की आराधना करने से सभी मनोकामनाएं पूरी होती हैं और दुख तकलीफों से मुक्ति मिलती है।
महाभारत में माता कुंती और भगवान सूर्य के पुत्र कर्ण, अपने पिता सूर्य की प्रतिदिन पूजा अर्चना के साथ ही कार्तिक शुक्ल पक्ष में विशेष आराधना करते थे जो आंग वंश इस समय बिहार के भागलपुर नाम से जानता है, यहां से जुड़े थे। बिहार से सूर्य पूजा का गहरा संबंध है।
छठ पूजा का वैदिक इतिहास और मान्यता बहुत पुरानी है, यहां प्राचीन ऋषि मुनियों ने बिना कुछ खाए पिए जीवित रहने के लिए इसी विधि का अनुसरण किया था, जिन्हें ऊर्जा सूर्य से प्राप्त होती थी। इसी उद्देश्य से छठ पूजा अनुष्ठानों में इसी तरह पूजा संपन्न की जाती है।
राजा प्रियव्रत और उनकी रानी मालिनी, आज के बिहार और झारखंड के शासक थे। उन्हें कोई संतान नहीं थी, इसलिए संतान की कामना से पुत्रकामेष्ठि यज्ञ का अनुष्ठान किया जिसमें देवताओं से पुत्र प्राप्ति की कामना की जाती है। इसके दौरान हवन कुंड की अग्नि से चावल की खीर का कटोरा निकला। रानी मालिनी ने खीर खा ली इसके फलस्वरूप वे गर्भवती हो गईं। नौ माह बाद जब शिशु का जन्म हुआ, तो वह मृत था। क्षुब्ध होकर रानी आत्महत्या के उद्देश्य से नदी के किनारे जाती हैं, लेकिन एक महिला उन्हें ऐसा करने से रोकती हैं व अपना परिचय देवसेना/षष्ठी के रूप में बताते हुए उपायस्वरूप रानी से कहती हैं कि वे संतान देने और उसकी रक्षा के लिए सूर्य देवता की आराधना करें। रानी मालिनी ने ऐसा ही किया जिससे उन्हें शीघ्र की एक स्वस्थ पुत्र की प्राप्ति हुई, तभी से इस तिथि पर सूर्य पूजा करने की मान्यता है।
माना जाता है कि छठ पूजा की उत्पत्ति सबसे प्राचीन वेद ऋग्वेद से हुई है, इसमे भगवान सूर्य की पूजा में उच्चारित होते मंत्रों, अनुष्ठानों की विधियां और अद्भुत वेशभूषा के नमूने मिलते हैं। ऋग्वेद में भगवान सूर्य की उत्कट पूजा के साथ साथ अनुष्ठान संबंधी नियम धर्म आचरण संबंधी अनुष्ठानों के वर्णन मिलते हैं। वेदों में छठी मईया को चैती मईया नाम से भी जाना जाता है, जिनका एक नाम ऊषा भी है।
छठ पूजा से जुड़ी अन्य कई पौराणिक कहानियां भी सुनने को मिलती हैं, जो इस पर्व से जुड़ी मान्यताओं और महत्व को बखूबी बताती हैं। छठ पूजा महापर्व 4 दिनों का दिव्य अनुष्ठान होता है, जिसके बारें में विस्तार से जानते हैं।
इस व्रत को करने के लिए, चार दिनों का कठिन उपवास रखा जाता है। छठ उत्सव के समय, श्रद्धालुजन चार दिनों तक उपवास रखते हैं और उगते व डूबते सूर्य को अर्घ्य और अन्य भोजन सामग्री अर्पित करते हैं। इस अनुष्ठान को निर्जला यानी बिना कुछ खाए पिए संपन्न किया जाता है और साथ ही पवित्र स्नान करते हैं। व्रती भक्त जन अपने परिवार और समाज की भलाई के लिए आशीर्वाद की कामना करते हैं। छठ पूजा के अनुष्ठान में पानी में खड़े होकर ध्यान करना विधि का एक हिस्सा है।
नहाय खाय : छठ पूजा के प्रथम दिन व्रती जन पवित्र नदी या गंगा नदी में स्नान करते हैं और प्रसाद के रूप में उसका पावन जल घर लाते हैं।
खरना या लोहंडाः श्रद्धालु जन दूसरे दिन उपवास रखते हैं और सूर्यास्त के बाद चंद्रमा की पूजा करते हैं और प्रसाद रूप में खीर, रोटी और चावल बनाते हैं, जिसको खाकर वे अपना उपवास तोड़ते हैं, प्रसाद ग्रहण करने के बाद वे बिना कुछ भी खाए पिए 36 घंटों का कठिन उपवास रखते हैं।
संध्या अर्घ्य : यह डूबते सूर्य को पहला अर्घ्य होता है जब शाम के समय भक्त प्रसाद तैयार करते हैं और पवित्र जल में स्नान करते हुए डूबते सूर्य को अर्घ्य देकर प्रार्थना करते हैं। सूर्य देव व छठी मईया को अर्घ्य देते समय वे पारंपरिक लोकगीतो को गाते हैं और शाम का प्रसाद तैयार करते हैं।
प्रातःकालीन अर्घ्यः उगते सूर्य को दूसरी बार अर्घ्य देते हुए भक्तजन अपना उपवास तोड़ते हैं और भोर में ही पवित्र स्नान करते हैं।
इस त्यौहार में विशेष मिठाई ठेकुआ या खजुरिया बनाई जाती है, जिसका प्रसाद लगाने के बाद बड़े प्रेम से सभी स्वाद चखते हैं।
इस अनुष्ठान में व्रत रखने वाले जन अपनी सामान्य जीवन शैली से हटकर समय बिताते हैं जिसमें वे जमीन पर ही एक कंबल ओढकर शयन करते हैं और त्यौहार के पहले दिन सूर्य नमस्कार और सूर्य भगवान को अर्घ्य देने के साथ ही उन्हें फल प्रसाद वगैरह अर्पित करते हैं। छठ मानवीय जीवन को संयम, समरसता और एकता का संदेश प्रदान करता है।
छठ पूजा में बांस की टोकरी, नारियल,, गन्ना, केला, अनार, ठेकुआ, दूध, दीपक, हल्दी, नींबू, बेलपत्र और फूल शामिल रहते हैं, बांस की टोकरी में सामग्री रखकर नदी के किनारे जाया जाता है और नारियल और गन्ने को विशेष महत्व प्रदान किया जाता है, क्योंकि यह ऊर्जा, संपन्नता और समृद्धि का प्रतीक है।
मिट्टी के बने बर्तन ठेकुआ, खजुरिया और रसगुल्लों की मिठाईयां प्रसाद के रूप में अर्पित की जाती हैं, इस अवसर पर महिलाएं सोलह श्रृंगार करती हैं, जिसमें साड़ी, चूड़ियां और बिंदी लगाती हैं इसके अलावा छठ महापर्व की सबसे खास बात है कि इसमें व्रती महिलाएं पीला सिंदूर उपयोग करती हैं और नाक से शुरू करके माथे और पूरी मांग भरने का अद्वितीय तरीका पूरे भारतवर्ष में सबसे अनोखा और बेमिसाल प्रतीत होता है।
बांस की टोकरी को डाला कहते हैं, इस वजह से यह डाला छठ पर्व भी कहलाता है। पुरूष वर्ग पांरपरिक वस्त्र कुर्ता धोती पहनकर अपने सिर पर बांस की टोकरी यानी डाला को उठाकर घाट या किसी जल निकाय तक ले जाते हैं।
छठ पूजा सभी धर्मों और वर्गों के लिए बेमिसाल त्यौहार है जिसकी रौनक और खुशी सभी को होती हैं, छठ पूजा की तैयारी और पूजा में मुस्लिम धर्म के लोग भी घाटों की साफ सफाई और व्रत के नियमों का पालन करते हैं।
छठ पूजा में विशेष रूप से मिट्टी के चूल्हों में खाना पकाना बहुत ही शुभ माना जाता है। अधिकतर इन चूल्हों का निर्माण मुस्लिम महिलाओं द्वारा किया जाता है जिसको बनाने में वे साफ सफाई का विशेष ध्यान रखती हैं, यहां तक कि चूल्हे बनाने तक प्याज, लहसुन और मांस तक खाना बंद कर देते हैं और चूल्हों को तैयार करने वाली मिट्टी को नहा धोकर साफ कपड़े पहन कर ही छूती हैं, बिना नहाए चूल्हे बनाने वाली मिट्टी को भी हाथ नहीं लगाती हैं। उनका मानना होता है कि इन चूल्हों का प्रयोग छठ पर्व में होता है इसलिए वे इन्हें बहुत साफ सफाई से बनाती हैं।
सामाजिक समरसता और भाईचारे को बढावा देता यह पर्व सभी धर्मों के लिए श्रद्धा का प्रतीक हैं, यह किसी विशेष धर्म, जाति, संप्रदाय या स्थान तक ही सीमित नहीं है। इस पर्व को मुस्लिम धर्म की महिलाएं भी मनाती हैं और इस पर्व की खास मिठाई ठेकुआ के स्वाद को सभी लोग बहुत पसंद करते हैं।
छठ महापर्व प्रकृति और उसकी देन के लिए धन्यवाद देने का एक जरिया है। जहां इन चार दिनों में पर्यावरण को जरा भी खतरा न पहुंचाते हुए ईश्वर की साधना की जाती है और प्रकृति की मां छठी मईया की अपनी अपनी सामर्थ्य अनुसार धार्मिक रीति रिवाज के साथ पूजा अर्चना करते हैं। इस पर्व की खास बात ये है कि इस अनुष्ठान में इस्तेमाल होने वाली सभी वस्तुएं प्रकृति की गोद में ही है।
महापर्व का नदियों, जल निकायों, तटों के किनारे मनाए जाने के रीति रिवाज सबसे ज्यादा पर्यावरण का संवर्द्धन करते हैं और उसकी अनुकूलता को बढाते हैं। अनुष्ठान होने से पहले सभी नदी घाटों, तटों की पुरजोर साफ सफाई होने से और किसी भी प्लास्टिक, सिथेंटिक या किसी भी नुकसान देने वाली धातु से बनी चीज़ों का इस्तेमाल नही होता है, इन वजहों से भी और भी ज्यादा इस पर्व का महत्व बढ जाता है।
वैज्ञानिकों का भी मानना है कि छठ पर्व के दौरान जनता के बीच पर्यावरण की सुरक्षा और संरक्षा का संदेश प्रसारित होता है।
छठ महापर्व में इस्तेमाल होने वाली ज्यादातर वस्तुएं प्राकृतिक होती हैं जैसे अनुष्ठान में शामिल होने वाला ‘दउरा और सूप’ अपघटित होने वाले बांस से बने होते हैं। छठ पर्व प्रकृति की पूजा करने का पर्व है जिसमें हम भगवान सूर्य की आराधना करते हैं जो समस्त संसार में ऊर्जा का संचार करते हैं, जो प्रकट और अप्रकट सभी वस्तुओं को जीवन देते हैं।
हरित वस्तुओं को प्राथमिकता प्रदान करते इस पर्व में प्रसाद बनाने के लिए भी मशीनों का भी उपयोग न करके मिट्टी के स्टोव प्रयोग में लाना पसंद करते हैं।
छठ पूजा के दौरान प्रकृति और पर्यावरण को फायदा होने के साथ ही वैज्ञानिकता के आधार पर भी यह त्यौहार बहुत ज्यादा लाभकारी है, जिसका अच्छा परिणाम स्वास्थ्य में भी देखने को मिलता है।
उपवास रखने के दौरान शरीर खुद को डिटॉक्सीफाई करता है, जहां कई शारीरिक क्रियाओं की पूर्ति होती है, इसके अलावा डूबते और उगते हुए सूर्य को अर्घ्य देने से सूर्य की ऊर्जा व प्रभाव शरीर और मन पर सीधे असर डालता है, साथ ही सूर्य देव को समर्पित प्रसाद में इस्तेमाल की जाने वाली वस्तुओं की मूल प्रकृति और उसके प्रभावों से तन मन को ताज़गी मिलती है।
डॉक्टरों का मानना है कि पूरे त्यौहार के दौरान उपवास रखने से यह रक्तचाप नियंत्रित करने में सहायक होता है।
मानसिक शांति और तनाव दूर करने के साथ ही पाचन तंत्र दुरूस्त होता है।
सूर्य के सीधे संपर्क में रहने और नदी या किसी जल निकाय के संपर्क में रहकर अर्घ्य देने से विटामिन डी अवशोषित होता है, जिससे हड्डियों को मजबूती मिलती है।
छठ महापर्व की तैयारी मे वातावरण में जीवंत उत्साह की बयार बहने लगती है जो मानव जीवन के साथ ही प्रकृति, पशु पक्षी और निर्जीव वस्तुओं में भी रौनक भर देती है।
छठ महापर्व, इस धरा पर ऊर्जा के सबसे बड़े स्त्रोत भगवान सूर्य को समर्पित विशेष त्यौहार है, जिनकी सजीव उपस्थिति सभी प्राणियों के लिए ईश्वरीय वरदान से कम नहीं है। जिसमें जीवन की गईराइयों के संदेश भी मिलते हैं, डूबते और उगते दोनो सूर्य को अर्घ्य देने का सिद्धांत सीख देता है कि जो अस्त होगा, उसका उदय भी होगा और जो उदय हुआ है, वह अस्त भी होगा, परिस्थितियां चाहे जो भी हों हमें उनका स्वागत समान भाव से ही करना चाहिए। अगर आप भी इस त्यौहार की भव्यता का आनंद लेना चाहते हैं तो घर से निकलिए और अनुष्ठान की विशेष तैयारी व पूजा में दिव्य अनुभूति का एहसास कीजिए।