• Sep 30, 2025

कामाख्या देवी, असम कामरूप का प्रतिष्ठित शक्तिपीठ हैं जिसे 51 शक्तिपीठों में सबसे ज्यादा शक्तिशाली और पवित्र माना जाता है। पूर्वोत्तर भारत के असम राज्य में राजधानी गुवाहाटी के पास स्थित यह मंदिर पश्चिमी भाग में नीलांचल पर्वत के बीच में स्थित है। यह शक्तिपीठ भारत की तांत्रिक शक्तियों के लिए व्यापक केंद्र के रूप में है, जहां माना जाता है कि कामाख्या वामपंथी साधनाओं के लिए सर्वश्रेष्ठ तीर्थ है, जो काले जादू के लिए प्रसिद्ध हैं। यह अति पावन स्थान कामरूप कामाख्या मंदिर नाम से जाना जाता है।

मान्यता है कि यहां देवी सती का जननांग यहां गिरा था, यानी यह स्थान नारी जीवन की ऊर्जा शक्ति और जीवन की सृजनात्मकता का प्रतीक है।

कामाख्या मंदिर परिसर में मुख्य मंदिर के अलावा देवता के दस अवतार मंदिर यानी दसमहाविद्या मंदिर स्थित है जहां वाममार्गी महाविद्याओं जैसे धूमावती, कमलात्मिका, मातंगी, सोडाशी, त्रिपुरसुंदरी, भैरवी, बगलामुखी,, छिन्नमस्ता, काली और तारा को समर्पित है। जिसमें से त्रिपुरसुदंरी, मातंगी और कमला देवी मुख्य मंदिर के अंदर निवास करती है जबकि अन्य सात अपने व्यक्तिगत मंदिरों में रहती हैं और भगवान शिव के पांच मंदिर जैसे कामेश्वर, सिद्धेश्वर, केदारेश्वर, अम्रटोकेश्वर, अघोरा और कौटलिंग भी है। इन मंदिरों के संपूर्ण समूह को कामाख्या मंदिर परिसर कहा जाता है।

कामाख्या शक्तिपीठ से जुड़ी पौराणिक कथा

पुराणों के अनुसार राजा दक्ष की पुत्री देवी सती देवी दुर्गा का अवतार थीं, इन्होंने भगवान शिव से विवाह किया। राजा दक्ष को भगवान शिव पसंद नहीं थे, इस वजह से उन्होंने जब बहुत बड़े यज्ञ का आयोजन किया तो पुत्री सती और जामाता भगवान शिव को आमंत्रित नहीं किया। इस कारण देवी सती दुखी हुई लेकिन बिना बुलाए ही राजा दक्ष के यज्ञ समारोह में नंदी पर सवार होकर चली गई और राजा दक्ष से न बुलाने का कारण पूछा, इस पर राजा दक्ष ने भरी सभा में न सिर्फ भगवान शिव का अपमान किया बल्कि अपशब्द भी कहे। इससे आहत होकर देवी सती ने यज्ञ में कूदकर अपने तपोबल की अग्नि में खुद को समर्पित कर दिया। देवी सती की मृत्यु से भगवान शिव का अत्यंत क्रोधित हुए और उनका शव लेकर सभी लोकों में विचरण करने लगे, तब भगवान विष्णु ने सुदर्शन चक्र से देवी सती के पार्थिव शरीर के 51 टुकड़े धरती पर बिखेर दिए। जिस स्थान पर यह टुकड़े गिरे शक्तिपीठ बन गए। 

कामाख्या शक्तिपीठ में माता सती का योनि और गर्भभाग गिरने से यहां जिन देवी का उद्भव हुआ उन्हें मां कामाख्या के नाम से जाना गया। 

कामाख्या मंदिर से जुड़ा इतिहास 

  • ऐसा कहते हैं कि मंदिर की उत्पत्ति आर्यों के आने से पहले ही आदिवासी समाज की विशेषताओं द्वारा हो चुकी थी, जबकि पौराणिक साहित्य में बताया जाता है कि इसे कामदेव ने अपने रूप सौंदर्य को दोबारा प्राप्त करने के बाद बनवाया था। विस्तृत संरचना में बना यह मंदिर आज जितना बड़ा है, कहते हैं कि आज से भी कहीं गुना ज्यादा बढा यह पहले हुआ करता था। मंदिर का ऊपरी भाग पूरी तरह से ध्वस्त हो गया जिसके कारण के बारें में कहीं से कोई जानकारी नही मिलती है। समय की विशेष परिस्थितियों और धर्म संप्रदायों में शैव अनुयायियों की संख्या बढने के साथ इस मंदिर की लोकप्रियता काफी समय तक छिपी रही। 
  • इस मंदिर की प्रमुखता ब्रह्मपुत्र घाटी के प्रथम मुख्य शासक नरका के काल में उभर कर सामने आई। वैसे नरका के अग्रजों ने इसका कोई लिखित या प्रामाणिक स्पष्टीकरण कहीं नहीं दर्ज किया है इसलिए 16वीं शताब्दी के मध्य तक कोच साम्राज्य के आने तक मंदिर के बारें में कोई प्रामाणिक उल्लेख नहीं मिलता है। 
  • कुछ शोधकर्ताओं का दावा है कि 500 ईस्वी के दौरान नीलाचल पर्वत पर माता कामाख्या का आकर्षक मंदिर बनाया गया था। जिसका बाद में, कुदरती आपदाओं के कारण मूल मंदिर का ऊपरी भाग नष्ट हो गया और इसी के साथ मंदिर का निचला सिरा भी धीरे धीरे धरती में धंस गया। 
  • 16वीं शताब्दी के समय कोच राजा विश्व सिंह ने मंदिर का पुनर्निर्माण कराया, इसके बाद मुस्लिम आक्रमणकारियों द्वारा मंदिर को ध्वस्त कर दिया गया। वैसे इस तथ्य के पीछे भी मतभेद है क्योंकि कुछ लोग विनाश का कारण किसी प्राकृतिक आपदा को मानते हैं। कोच वंश के उत्तराधिकारी राजा नर नारायण द्वारा अपने भाई चिलाराय के साथ इस स्थान पर आए और उन्होंने दोबारा 1565 ईस्वी के समय मंदिर का जीर्णोद्धार कराया, साथ ही शाही संरक्षण दिया। 
  • 17वीं शताब्दी की शुरूआत में असम राज्य में एक नया शासक वंश आ चुका, ब्रहमपुत्र घाटी में इस समय तक अहोम शासन स्थापित हो चुका था। जिन्होंने कोच शासन द्वारा निर्माणित कामाख्या मंदिर को और भी ज्यादा विकसित किया। साथ ही शिलालेखों और ताम्रपत्रों में इतिहास की इस जानकारी को सुरक्षित भी कराया। 
  • फिर एक बार 1879 ई. में भयावह भूकंप ने इस मंदिर को कुछ हद तक नुकसान पहुंचाया, साथ ही में आसपास के और मंदिरों के भी शीर्ष भाग क्षतिग्रस्त हो गये। ऐसे में कोच बिहार के शाही राजघराने ने मंदिर के जीर्णोद्धार और बचाव के लिए एक वृहद राशि प्रदान की, फिर कई चरणों में इस मंदिर के जीर्णोद्धार कार्य को किया गया। 

कामाख्या मंदिर का यह इतिहास हमेशा से ही प्रसिद्धि और उत्सुकता का विषय रहा है, जिन शासकों ने भी इस पावन स्थान को जीवंत रखने में सहयोग दिया है, इतिहास के सुनहरे अक्षरों मे उनके नाम हमेशा याद किए जाएंगे। 

कामाख्या मंदिर से जुड़ी लोक कथाएं 

  • किंवदंतियों के अनुसार देवी रति के पति और देवता कामदेव जब भगवान शिव की साधना में विघ्न डालने के उद्देश्य से पहुंचे तब भगवान शिव के तीसरे नेत्र के खुलने से वे क्रोध की अग्नि में भस्म हो गए। इसके बाद देवी रति के अनुनय विनय पर भगवान शिव ने कामदेव को पुनर्जीवित तो कर दिया लेकिन उनका रूप सौंदर्य नष्ट हो गया, इस पर कामदेव-रति ने भगवान शिव से अपने मूल स्वरूप को पाने के लिए प्रार्थना की, भगवान शिव ने उपाय स्वरूप कामदेव को नीलाचल पर्वत पर इस योनि मुद्रा गुप्त स्थान को खोजने और यहां आराधना करने की सलाह दी। कामदेव ने पूरी निष्ठा से भगवती कामाख्या की खोज की और उनकी पूजा अर्चना में समर्पित हो गए। दैवीय चमत्कार से कामदेव ने पुनः अपना स्वरूप प्राप्त किया और इस स्थान पर भगवान विश्वकर्मा की मदद से योनि मुद्रा के ऊपर भव्य मंदिर का निर्माण किया। तभी से इस मंदिर के नाम के आगे कामदेव का कामरूप नाम भी जुड़ गया। इसे कामरूप कामाख्या भी कहा जाता है। 
  • शाक्त संप्रदाय के पावन ग्रंथों में से एक कालिका पुराण में इस मंदिर की उत्पत्ति के बारें में लगभग 9वीं शताब्दी में लिखा गया है जिसमें बताया है कि नीलाचल में इसी स्थान पर माता सती ने भगवान शिव जो कामदेव के प्रतीकस्वरूप है, उनके साथ वानप्रस्थ लिया है। कालिका पुराण में कामाख्या मंदिर में कई और भी जानकारियां दी हैं। 
  • 16वीं शताब्दी में लिखा गया योगिनी तंत्र, कालिका पुराण में लिखी कामाख्या मंदिर से जुड़े तथ्यों का खंडन करता है और मंदिर की उत्पत्ति से जुड़े सिद्धांतों को वर्णित करते हुए योनि की प्रतीकात्मकता पर बल देता है। 
  • एक और मान्यता के अनुसार कोच बिहार राजपरिवार को स्वयं कामाख्या देवी ने मंदिर में आराधना करने से रोका था। इसी कारण, आज भी इस राजपरिवार के वंशज श्राप के कारण कामाख्या पर्वत की ओर कदम बढाने का साहस नहीं कर पाते हैं। 
  • स्थानीय किंवदंती के अनुसार इसी जगह पर भगवान शिव और देवी पार्वती के बीच प्रेम की शुरूआत यहीं से हुई थी, जिसे ‘काम’ शब्द की संज्ञा दी जाती है इसी वजह से इस स्थान को कामाख्या मंदिर कहते हैं।

कामाख्या मंदिर की वास्तुकला

16वीं शताब्दी में बने इस मंदिर का निर्माण ग्याहरवीं-बारहवीं शताब्दी के खंडहर पाषाणों से किया गया था, जो नीलांचल पर्वत पर स्थित है। इस मंदिर में कई वास्तुशैलियों का मिश्रण देखने को मिलता है जैसे सारसेनिक या मुगल और नागर या उत्तर भारतीय शैली इन सभी के अनोखे सम्मिश्रण यहां देखने को मिलते हैं। असाधारण मिश्रण और संयोजन की वजह से इसे नीलाचल वास्तुकला शैली नाम से जानते हैं। 

असम में इस मंदिर के निर्माण शैली के बाद यह यहां की प्रमुख बुनियादी शैली बन गई, इस मंदिर का भूतल पूर्णतः विकसित है और दर्शनीय अंदाज़ से विशेष आकर्षित करता है। 

इसमें पांच कक्ष है जैसे गर्भग्रह, बरामदा, जगमोहन यानी मुख्य कक्ष, भोगमंदिर या पंचरत्न इसे अनुष्ठान कक्ष भी कहते हैं और नटमंदिर यानी ओपेरा हॉल। नटमंदिर को अहोम राजा राजेश्वर सिंह ने सन् 1759 में जोड़ा था, इसका उपयोग सूक्ति मंदिरों से संबंधित पारंपरिक नृत्य और संगीत के प्रदर्शन के लिए किया जाता है। हर कक्ष की भीतरी संरचना स्थापत्य कला में भिन्न भिन्न विशेषताएं हैं। मुख्य मंदिर में सारसेनिक गुंबद है जहां बरामदे में पुरानी शैली की फूस की झोपड़ियों की तरह दो छतों वाले डिजाइन हैं। अनुष्ठान कक्ष में पांच गुबंद हैं और नटमंदिर में अर्ध वृत्ताकार सिरे वाली सीप छत है जो असम के अधिकतर प्रार्थना कक्षों में देखने को मिलती है। 

कामाख्या मंदिर के अन्य मंदिर मुख्य मंदिर के गर्भग्रह की तरह वास्तु संरचना का प्रतिविम्ब है। शिखर के बाहरी भाग पर गणेश और अन्य हिंदू देवी देवताओें की मंत्रमुग्ध करने वाले नक्काशीदार पटल और चित्र बने हुए हैं। 

कामाख्या शक्तिपीठ में कोई भी प्रतिमा नहीं है 

देवी दुर्गा के प्रमुख शक्तिपीठों में से एक कामाख्या देवी मंदिर में देवी की कोई भी प्रतिमा अवस्थित नहीं है, यहां देवी के जननांग और गर्भ भाग की ध्यान साधना होती है।

कामरूप क्षेत्र के इस मंदिर में योनि आकृति लिए समतल चट्टान जो जमीन से नीचे और जल से भरी होती है, पूजा अर्चना की जाती है। मंदिर के पास ही एक कुंड भी है जो हमेशा ही फूलों से ढका रहता है, वहीं इस स्थान के पास बने मंदिर में देवी की प्रतिमा स्थापित है। इस शक्तिपीठ को समस्त पीठों में सबसे महान और शक्तिशाली माना जाता है। 

अम्बुवाची मेला : जब देवी कामाख्या रजस्वला धर्म में होती हैं। 

अंबुबाची मेला भारत के पूर्वोत्तर राज्यों में आयोजित होने वाला सबसे बड़ा मेला जिसकी तुलना उत्तर भारत के कुंभ पर्व से की जाती है। अंबुबाची अंबु और बाची शब्दों से मिलकर बना है जिनके अर्थ क्रमशः जल और प्रवाह है। देवी कामाख्या का वार्षिक मासिक धर्म के उत्सव के रूप में मनाया जाने वाला यह पर्व स्थानीय रूप से अमोती या अमेटी भी कहा जाता है। अंबुबाची का कृषि सिद्धांत की प्राचीनता से गहरा नाता है जहां नारी की समानता उपजा्ऊ कृषि भूमि से की जाती है। 

सदियों से महिलाओं के जिस मासिक धर्म को लेकर अपवित्र और छुआछूत की धारणाओं का सामना करना पड़ता है, वहीं इस पवित्र स्थान पर मासिक धर्म के समय माता कामाख्या को अत्यंत पवित्र माना जाता है। 

समस्त शक्तिपीठों में प्रमुख कामाख्या देवी मंदिर में माता का जननांग और गर्भ भाग गिरने से माता 3 दिनों के लिए रजस्वला या मासिक धर्म से होती है।

इन्हीं तीन दिनों में यहां अम्बुवाची मेला लगता है और मंदिर 3 दिनों तक बंद रहता है, आश्चर्य कि बात है कि इस दौरान यहां पास में स्थित ब्रह्मपुत्र नदी का पानी लाल हो जाता है। इसका कारण कामाख्या माता के रजस्वला प्रकृति को माना जाता है। 

तीन दिनों के बाद मंदिर के पट खुलने पर भक्तो की अपार भीड़ यहां उपस्थित होती है। 

भक्तों को प्रसाद स्वरूप में वितरित किया जाता है गीला कपड़ा 

करोड़ों आस्थाओं के केंद्र बिंदु और शक्तियों के इस शीर्ष स्थान में एक रोचकता ये भी है कि यहां अन्य तीर्थस्थलों की भांति प्रसाद में कोई खाद्य वस्तु नहीं मिलती है। वरन् यहां प्रसाद स्वरूप गीला कपड़ा बांटा जाता है, जिसे अम्बुवाची वस्त्र कहते हैं। 

मान्यता है कि स्त्री जाति की तरह माता कामाख्या भी मासिक धर्म से होती है, तब यहां सफेद रंग के कपड़े को बिछा दिया जाता है और मंदिर तीन दिनों के लिए बंद हो जाता है। 

तीन दिन बाद जब मंदिर के कपाट खोले जाते हैं तो वह कपड़ा लाल रंग का हो जाता है, इसी गीले लाल रंग के वस्त्र को अम्बुवाची वस्त्र कहते हैं, जिसे प्रसाद के रूप में भक्तों को बांटा जाता है। 

भैरव बाबा के दर्शन बिना पूरी नही होती मां कामाख्या मंदिर की यात्रा

नीलांचल पर्वत पर स्थित मां कामाख्या के दर्शनों का फल तब तक नहीं मिलता जब तक आप यहां स्थित उमानंद भैरव बाबा के दर्शन न कर लें। असम के गुवाहाटी में ब्रहमपुत्र नदी के पास स्थित यह मंदिर कामाख्या मंदिर के पास ही है।

इसलिए कामाख्या मंदिर में दर्शन करने के पश्चात बाबा उमानंद भैरव के दर्शनों हेतु अवश्य जाएं। 

वाममार्गी साधना एवं तंत्र मंत्र का व्यापक केंद्र : मां कामाख्या शक्तिपीठ 

असम का यह स्थान शक्ति उपासना और विशेष इच्छाओें की पूर्ति के लिए की गई तंत्र साधनाओं का सबसे मुख्य केंद्र माना जाता है जहां हर साल जून महीने में आषाढ महीने के दौरान तीन दिनों के लिए मंदिर में लगने वाले अम्बुवाची मेले में बहुत भारी संख्या में अघोर, तांत्रिक और संत साधु आते हैं। 

ब्रहमपुत्र नदी का पानी अपने आप लाल हो जाना और माता के मासिक धर्म के दौरान आराम करने की दृष्टि से मंदिर का तीन दिन बंद रहना, यह माता कामाख्या के प्रति एक मानवीय धारणा बनाती है जो अत्यंत दिव्य अनुभूति है। 

कामाख्या मंदिर से जुड़े कुछ रोचक और आश्चर्यजनक तथ्य 

माता कामाख्या के रजस्वला धर्म के दौरान यहां बने जलकुंड में पानी की जगह रक्त प्रवाहित होता है।

आषाढ महीने के 7वें दिन मां कामाख्या रजस्वला होती हैं और इस समय देश भर से ग्रहस्थों, योगी, साधु और संतों की अपार भीड़ उमड़ती है। 

दुनिया का ऐसा एकमात्र मंदिर है जहां माता भी रजस्वला धर्म से होती है और इस दौरान मंदिर तीन दिनों के लिए बंद किया जाता है। 

माता अपनी 64 योगिनियों और दस महाविद्याओं के साथ यहां विराजित हैं, एक ही जगह पर माता के दसों रूपों भुवनेश्वरी, तारा, बगलामुखी, धूमावती, छिन्न मस्तिका, काली, मातंगी, कमला और भैरवी के दर्शन एक साथ हो जाते हैं। 

मंदिर परिसर में पशुओं की बलि दिए जाने के लिए भी मशहूर है, जहां मादा पशुओं की नहीं सिर्फ नर पशुओं की ही बलि दी जाने की परंपरा है। 

कामाख्या मंदिर की समय सारिणी व कार्यक्रम 

1. पीठस्थान स्नान सुबह 5ः30 बजे 
2. दैनिक पूजा सुबह 6 बजे 
3. भक्तों के लिए मंदिर के दरवाजे खुलते हैं सुबह 8 बजे 
4. देवी कामाख्या को पका हुआ प्रसाद चढाने के बाद श्रद्धालुओं में वितरण करने हेतु मंदिर के द्वार बंद किए जाते हैं। दिन में 1 बजे 
5. पुनः दर्शनों के लिए भक्तों हेतु मंदिर के द्वार खुलते हैं दोपहर 2ः30 बजे 
6. संध्या होने से पहले मंदिर के द्वार बंद होने का समय शाम 5ः15 मिनट 
7. मां कामाख्या शयन आरती शाम 7ः30 बजे 

मंदिर का समय 

कामाख्या मंदिर भक्तों के लिए सुबह 8 बजे से दोपहर 1 बजे तक और दोपहर 2ः30 मिनट से शाम 5ः30 मिनट तक दर्शनों हेतु खुला रहता है। विशेष अवसरों पर यह समय बढा दिया जाता है।

मां कामाख्या शक्तिपीठ में मनाए जाने वाले अन्य विशेष अवसर 

मां कामाख्या शक्तिपीठ नारीत्व को श्रेष्ठता से परिभाषित करता ऐसा स्थान है जहां कई विशेष पर्वों का आयोजन होता है। जिससे यहां की दिव्यता और आध्यात्मिक विशेषता और भी ज्यादा बढ जाती है। 

1. दुर्गा पूजा 

मां कामाख्या शक्तिपीठ में नवरात्रि त्योहार के समय बहुत ज्यादा रौनक रहती है। नौ दिनों तक चलने वाले इस त्योहार में वातावरण बहुत ज्यादा जीवंत और उत्साह से भरा रहता है। आश्विन और चैत्र महीनों में आने वाला यह त्योहार पखवाड़े यानी पक्ष तक मनाया जाता है, इसी वजह से यह पखुआ पूजा के नाम से जाना जाता है। 

2. कुमारी पूजा 

कुमारी पूजा छोटी कन्या की पूजा का अनुष्ठान है जिसे मां कामाख्या का स्वरूप मानकर पूजा की जाती है। हिंदू मान्यताओं के अनुसार कुंवारी कन्याओं का देवी का अवतार माना जाता है और पूज्य माना जाता है। भारतीय गौरवपूर्ण पंरपरा के अनुसार नारियों और कन्याओं को देवी स्वरूप सम्मान देना गरिमामय है। कन्या को लाल रंग के वस्त्रों से सजाया जाता है, उन्हें सिंदूर, माला, आभूषण, बिंदी आदि सुंदर चीजों से सजाया जाता है और उनसे आशीर्वाद प्राप्त किया जाता है। कन्या पूजन या कुमारी पूजा जीवन में नकारात्मक शक्तियों से दूर रखने के साथ ही सुख शांति सृजन और संपन्नता प्रदान करती है। 

3. देवध्वनि मेला या मनसा पूजा 

श्रावण माह की संक्राति के दिन मंदिर के नटमंदिर में तीन दिनों तक मनसा पूजा की जाती है। शामनवादी नृत्य शैली देवध्वनि का आध्यात्मिक शक्ति संपन्न लोगों द्वारा प्रतिनिधित्व किया जाता है। इन्हें स्थानीय भाषा में देवधा, जोकी या घोरा कहते हैं। यह प्रथा भक्तों के मध्य बहुत लोकप्रिय है जहां इस पूजा के दौरान हज़ारों लोग शक्तिपीठ आते हैं।

4. पूहन बिया 

इस दिन को माता कामाख्या के विवाह दिवस के रूप में मनाया जाता है। जो दिसंबर या जनवरी में मनाया जाने वाला पर्व होता है। इस दिवस को बहुत धूमधाम से मनाया जाता है और माता को बढिया पकवानों का भोग लगाया जाता है। 

आसपास घूमने योग्य स्थान 

कामाख्या शक्तिपीठ यात्रा करने के दौरान आप यहां अन्य स्थलों का भी भ्रमण कर सकते हैं। 

  • उमानंद भैरव मंदिर
  • उर्वशी कुंड
  • अश्वक्रांता मंदिर
  • बशिष्ठ आश्रम
  • नवग्रह मंदिर
  • गुवाहाटी तारामंडल
  • मां चंडिका मंदिर
  • दीर्घेश्वरी मंदिर 
  • असम राज्य संग्रहालय 
  • असम राज्य चिड़ियाघर सह वनस्पति उद्यान 

कामाख्या शक्तिपीठ कैसे पहुंचे

हवाई मार्ग से 

असम पूर्वोत्तर भारत में प्रमुख इंटरनेशनल एयरपोर्ट लोकप्रिय गोपीनाथ बोरदोलाई अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा है जो गुवाहाटी में स्थित है, इसलिए यह गुवाहाटी एयरपोर्ट के नाम से भी जाना जाता है। यह कामाख्या शक्तिपीठ से लगभग 19 किमी दूरी पर है जहां पहुंचने के लिए स्थानीय वाहन या टैक्सी, बस आसानी से मिल जाती है। 

रेल मार्ग से

शक्तिपीठ से नजदीकी रेलवे स्टेशन कामाख्या जंक्शन है जो शहर का दूसरा बड़ा स्टेशन है और मंदिर से लगभग 6 किमी दूरी पर स्थित है। आप चाहें तो गुवाहाटी रेलवे स्टेशन से कामाख्या मंदिर पहुंच सकते हैं जिसकी लगभग दूरी 10 किमी है, जहां देश के प्रमुख शहरों से रेलों की बेहतर आवाजाही है। रेलवे स्टेशन से मंदिर तक पहुंचने के लिए स्थानीय टैक्सी, बस या कैब की मदद ले सकते हैं। 

सड़क मार्ग से 

असम की राजधानी गुवाहाटी की सड़के और राजमार्ग बेहतर स्थिति में हैं जहां आसपास के राज्यों, शहरों से आसानी से पहुंच सकते हैं। यहां जाने के लिए राज्य परिवहन की बसें या अन्य साधनों के माध्यम से पहुंच बहुत आसान है।

निष्कर्ष

कामाख्या शक्तिपीठ, मूल रूप से सृजनात्मकता की जननी है। बालक नौ माह माता के गर्भ में रहकर जिस तरह पालन पोषण और जीवन प्राप्त करता है उसी तरह से इस शक्तिपीठ में देवी कामाख्या के गर्भ में यह सृष्टि नवजीवन और शक्तिशाली ऊर्जा प्राप्त कर जीवन में नई उमंग और तरंग प्राप्त करती है। नीलांचल पर्वत पर स्थित इस रहस्यमयी शक्तिपीठ से जुड़े कई अद्भुत रहस्य और तथ्य हैं जो आज भी सर्वविदित नही हैं। भक्तों के लिए सदैव कल्याण और आशीर्वाद से अभिसिंचित करती मां अंबा के इन दिव्य शक्तिपीठों को आप सिर्फ भक्ति और श्रद्धा के माध्यम से ही महसूस कर सकते हैं। 

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