भगवान शिव अपने भक्तों से सदैव प्यार करते हैं और समय आने पर इस बात के प्रमाण भी देते हैं। 12 ज्योतिर्लिंगों में से एक घृष्नेश्वर या घुष्ममेश्वर ज्योतिर्लिंग सदियों से उनके इस गुण का परम साक्षी है, एक ऐसा ज्योतिर्लिंग जिसकी नींव भक्त की अटूट भक्ति और श्रद्धा पर ही टिकी है। सावन के इस परम पावन महीनें में आज यात्रा करते हैं घुष्मेश्वर ज्योतिर्लिंग की, जानते हैं इसकी उत्पत्ति इतिहास और मंदिर की और विशेषताओं के बारें में जिसके माध्यम से आज हम इस ज्योतिर्लिंग को और करीब से जान पाएंगे और अगर आप भी सावन में भगवान शिव के इस ज्योतिर्लिंग के दर्शन करना चाहते हैं तो यकीनन यह आर्टिकल आपके लिए सहायक है।
भारत के महाराष्ट्र राज्य के औरंगाबाद जिले जिसे वर्तमान में छत्रपति संभाजी नगर नाम से जाना जाता है, इसके वेरुल गांव में स्थित है जो राष्ट्रीय स्तर पर संरक्षित स्थल है। जिसके बारें में शिव पुराण, स्कंद पुराण, रामायण और महाभारत में भी जानकारी मिलती है।
जैसा कि भारतवर्ष के कई मंदिरों को दुर्भावनाओं का शिकार होना पड़ा है, इसी क्रम में 13वीं व 14वीं शताब्दी के समय इस मंदिर को भी हानि पहुंचाई गई है, पुनर्निर्माण और पुनःविनाश की प्रक्रिया कई बार हुई है। सबसे पहले 16वीं शताब्दी में शिवाजी के दादा मालोजी भोसले ने करवाया था, वर्तमान स्वरूप का जीर्णोद्धार इंदौर की महारानी गौतम बाई होल्कर द्वारा 1729 में कराया गया था।
दक्षिणी भाग पर देवगिरी पर्वत के पास सुधर्मा नाम के एक ओजस्वी ब्राह्मण अपनी पत्नी सहित रहते थे, जिसका नाम सुदेहा था। दोनों का ग्रहस्थ जीवन प्रेमपूर्वक बीत रहा था लेकिन वे संतान सुख से वंचित थे। ज्योतिषियों को दिखाया तो उन्होंने सुदेहा के गर्भ से संतान प्राप्ति असंभव बताया लेकिन सुदेहा को संतान की बहुत इच्छा थी जिस वजह से उसने अपने पति सुधर्मा का विवाह अपनी छोटी बहन घुष्मा से करने का प्रस्ताव रखा, सुदेहा के अनुनय विनय पर यह विवाह संपन्न हुआ। घुष्मा अत्यंत शालीन और कुलीन स्त्री होने के साथ ही भगवान शिव की अनन्य भक्त थी। वह रोज़ एक सौ पार्थिव शिवलिंग बनाकर सच्ची श्रद्धा से उनकी साधना आराधना करती थी। समय बीता और घुष्मा ने अत्यंत सुदंर और प्रभावशाली बालक को जन्म दिया, बच्चे के जन्म से घर में वातावरण आनंदमय हो गया। बालक बड़ा हो गया, उसका विवाह भी हो गया। समय के साथ कई तरह के घृणित विचारों ने सुदेहा के अंदर घर करना शुरू कर दिया। अपने घृणित विचारों के वशीभूत होकर सुदेहा ने रात्रि के समय उसके जवान पुत्र की हत्या कर दी और शव को ले जाकर उसी तालाब में फेंक दिया, जहां घुष्मा रोज एक सौ पार्थिव शिवलिंग की पूजा कर विसर्जन करती थी। सुबह इस घटना की जानकारी होने पर सुधर्मा और उसकी बहू बुरी तरह विलाप करने लगे लेकिन घुष्मा हमेशा की तरह भगवान शिव की आराधना में ही तल्लीन रही जैसे कुछ हुआ ही नहीं है।पूजा समाप्त कर जब पार्थिव शिवलिंगों को उसी तालाब में विसर्जन करके लौट रही थी तब देखा कि घुष्मा का सुपुत्र तालाब के अंदर से निकलता हुआ दिखाई दिया, साथ ही साक्षात् भगवान शिव ने भी दर्शन दिए और सुदेहा के कृत्य से नाराज होकर उसे दंडित करने ही वाले थे तभी घुष्मा के आग्रह पर भगवान शिव ने सुदेहा को क्षमा कर दिया और घुष्मा द्वारा मांगे गए लोक कल्याण वर के अनुसार इस स्थान पर हमेशा के लिए ज्योतिर्लिंग स्वरूप में बस गए, तब से यह स्थान घुष्मेश्वर ज्योतिर्लिंग नाम से प्रसिद्ध हुआ।
अन्य मान्यता के अनुसार कहते हैं कि देवी पार्वती ने जल और कुमकुम लेकर अपनी हथेलियों को गोलाकार आकृति में घुमाकर जिस शिवलिंग का निर्माण किया, तब वही शिवलिंग घृष्णेश्वर नाम से जाना गया।
अतिरिक्त किंवदंती यह भी है कि भगवान शिव ने इस स्थान पर राक्षस घुष्मासुर का अंत किया इसलिए यहां घुष्मेश्वर या घृष्णेनश्वर नाम से प्रसिद्ध हुए।
इस शिव मंदिर का निर्माण 44,000 वर्ग फीट क्षेत्र में काले पत्थर से किया गया है, जिसकी भीतरी और बाहरी दीवारों पर विभिन्न मूर्तियों की आकृतियां और डिजाइन्स हैं। यह अपने तरह का एकमात्र शिवलिंग है जहां मंदिर के शिखर पर सफेद पत्थर पर भगवान शिव, देवी पार्वती, भगवान गणपति और शिवपुत्र कार्तिकेय की नंदी पर विराजमान और भगवान शिव के शीर्ष पर देवी गंगा की नक्काशी चित्रण देखने को मिलता है जिसको मंदिर के दक्षिणी प्रवेश द्वार से स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। मंदिर के एक स्तंभ पर हाथी और नंदी की सुंदर नक्काशीदार आकृति है जो भगवान शिव और भगवान विष्णु के मिलन यानी हरि हर मिलन का प्रतीक स्वरूप मानी जाती है, इसके अलावा मंदिर में 24 स्तंभ हैं जिन पर यक्षों की लेटी हुई मूर्तियां बनी हैं जो यह दर्शाता है कि यक्षगण मंदिर का पूरा भार अपने कंधों और पीठ पर उठाए हुए हैं। मंदिर के गर्भग्रह में 17 फीट लंबा और 17 फीट चौड़ा शिवलिंग स्थापित है जहां सभी को जाने की अनुमति है।
रूद्राभिषेक पूजाः भगवान शिव का एक नाम रूद्र भी है जो उनके दिव्य स्वरूपों में से एक है, जिसको समर्पित यह पूजा इनकी विशेष कृपा को पाने हेतु की जाती है, इस पूजा में शिवलिंग पर दूध, शहद, घी, दही, चीनी और पवित्र गंगाजल जैसी विभिन्न पावन सामग्रियों को अर्पण किया जाता है जहां अनुभवी पुजारियों द्वारा वैदिक मंत्रों और रूद्र सूक्त का जाप किया जाता है।
जलाभिषेक पूजाः जब किसी विशेष मुहूर्त में शिवलिंग पर जल चढाते हुए पवित्र मंत्रों का जाप करते हैं तो वह पूजा जलाभिषेक पूजा कहलाती है, यह ऐसी विधि है जिसे पुरुष, महिला या बच्चे कोई भी कर सकता है।
पंचामृत अभिषेक पूजाः इस विधि में शिवलिंग पर पंचोपचार पूजन किया जाता है जो पावनता, पोषण और धर्म का प्रतीक होते हैं।
लघुरूद्र्र अभिषेक पूजाः यह वैदिक अनुष्ठान विभिन्न तरह की सामग्रियों और रूद्र मंत्रों के अनवरत जाप से होने वाली पूजा है जो मन, आत्मा को शुद्ध करते हुए समस्त बाधाओं को दूर करती है। यह पूजा विशेषतौर पर श्रावण मास या महाशिवरात्रि पर्व पर संपन्न कराई जाती है।
यहां पर महामृत्युंजय मंत्र जाप भी करवाया जाता है जो आध्यात्मिक उन्नति के साथ ही अमरता के मंत्र के रूप में जाना जाता है और प्राणी को मृत्यु के मुख से भी बाहर ले आता है।
इन सभी पूजाओं को आप इस ज्योतिर्लिंग में आयोजित करवा सकते हैं जिसका ऑनलाइन या ऑफलाइन दोनों मोड में संचालन किया जाता है, इसकी बुकिंग करने के लिए आपको आधिकारिक वेबसाइट के माध्यम से अपनी जानकारी भरनी होगी साथ ही उक्त फीस का भुगतान करते हुए बुकिंग संपन्न करनी होगी। ऑफलाइन पूजा के लिए मंदिर बंद होने के समय से 7 घंटे पहले आपको इस स्थान पर पहुंचने के साथ ही यहां पंडितों से संपर्क करना भी जरूरी है।
मंगलवार से शुक्रवारः सुबह 6 बजे से 10ः30 बजे, दोपहर में 1ः30 बजे से शाम 7 बजे तक
शनिवार, रविवार और सोमवारः सुबह 6 बजे से 9ः00 बजे तक और दोपहर 2 बजे से शाम 7 बजे तक
ऋतु अनुसार मंदिर के खुलने और बंद होने के समय में कुछ परिवर्तन संभव है।
सावन महीनें के सोमवार और महाशिवरात्रि जैसे अन्य शुभ अवसरों पर मंदिर भक्तों के लिए 24 घंटे खुले रहता है जब निरंतर दर्शन और पूजा जैसी सुविधाएं मिलती हैं या प्राप्त सूचना के अनुसार समय में परिवर्तन भी हो सकता हैं। यहां के प्रमुख त्योहारों में महाशिवरात्रि, श्रावण, कार्तिक पूर्णिमा और गणेश चतुर्थी यानी भगवान गणेश का जन्मोत्सव यहां बहुत धूमधाम से मनाया जाने वाले पर्व हैं।
एलोरा की गुफाएंः यहां से ऐतिहासिक एलोरा की गुफाएं लगभग 16 किमी दूर पर स्थित है, जहां विभिन्न धर्मग्रंथों के चित्रण देखे जा सकते हैं जो विभिन्न संस्कृतियों के परिचायक हैं और उनके रीति रिवाजों का प्रतिनिधित्व करते हैं जो यूनेस्को की विश्व धरोहर स्थल में भी शामिल हैं।
शिवालय तीर्थः पवित्र कुंंड के रूप में मंदिर के पास ही स्थित है मान्यता है इसमें स्नान करने से चर्मरोगों से मुक्ति मिलने के साथ ही आध्यात्मिक अनुभूति का एहसास होता है, इसमें पवित्र तीर्थों का दिव्य जल समाहित है जो इस ज्योतिर्लिंग की दिव्यता को बढाता है।
भद्र मारुति तीर्थः भगवान शिव को समर्पित भव्य मंदिर है, जो घृष्नेश्वर मंदिर के पास ही अवस्थित है।
कैलाश मंदिरः यहां मनाया जाने वाला प्रमुख गणपति जन्मोत्सव घृष्णेश्वर ज्योतिर्लिंग का प्रमुख त्यौहार है।
लक्षविनायक गणपति मंदिरः भगवान गणेश के भव्य 21 गणेशपीठों में से एक है जो उच्च धार्मिक महत्व के साथ ही यह सफलता और समृद्धि देने वाला मंदिर है।
दौलताबाद किलाः ऐतिहासिक किले के रूप में प्रसिद्ध यह किला मुहम्मद बिन तुगलक के समय भारत की राजधानी बनने वाला किला था, परंतु ऐसा संभव न हो सका लेकिन यह किला पर्यटन आकर्षण के रूप में प्रसिद्ध है।
हवाई और रेलमार्गः निकटतम हवाई अड्डा और रेलवे स्टेशन संभाजी नगर में हैं, जो घृष्नेश्वर मंदिर से लगभग 32 किमी दूर है।
सडक मार्गः यह मंदिर सड़क मार्ग से भी अच्छी तरह जुड़ा हुआ है, शिरडी से यह मंदिर लगभग 110 किमी दूर, नासिक से लगभग 175 किमी और मुंबई या पुणे से लगभग 300 किमी दूर है।
घृष्नेश्वर ज्योतिर्लिंग भगवान शिव के 12 प्रमुख ज्योतिर्लिंगों में से सबसे अंतिम स्थान पर आने वाला स्थान है जहां की अद्भुत वास्तुकला राष्ट्रीय स्तर संरक्षित होते हुए धार्मिक और स्थापत्य भव्यता का प्रतीक चिन्ह है, जहां कई रोचक किंवदंतियों और अनुष्ठानों का आकर्षण जीवन की गहराइयों और प्रकृति की खूबसूरती को समग्रता से परिभाषित करता है।