शक्तिशाली देवी मां काली को समर्पित जशोरेश्वरी शक्तिपीठ प्रतिष्ठित हिंदू मंदिर जो 51 शक्तिपीठों में से एक है जो बांग्लादेश के खुलना शहर के ईश्वरीपुर गांव में स्थित है। जेशोर की देवी कहलाने वाली मां इस स्थानीय क्षेत्र और यहां के अनूठे महत्व को दर्शाता है, जो इस क्षेत्र की संपन्न ऐतिहासिक और आध्यात्मिक विरासत का प्रामाणिक स्थान है। माता रानी के मंदिरों की आध्यात्मिक संपन्नता और समृद्धशाली गौरवगाथा सदियों से अपनी उपस्थिति का एहसास करा रही है, जिसकी शीतल छाया में हर किसी को सुकून भरी राहत मिलती है। जानते हैं जेशारेश्वरी मंदिर के पौराणिक इतिहास, स्थापना, स्थापत्य और अन्य विशेषताओं के बारें में विस्तार से इस आर्टिकल में।
भगवान शिव और उनकी पत्नी देवी सती राजा दक्ष की पुत्री थी। एक बार राजा दक्ष ने यज्ञ समारोह का आयोजन कराया और उसमें समस्त देवी देवताआेंं को आमंत्रित किया लेकिन अपनी पुत्री सती और उनके पति भगवान शिव को जानबूझकर नहीं बुलाया क्योंकि वे भगवान शिव को राजसी सुख में न रहने के कारण नापसंद करते थे। दुखी सती को जब न बुलाने की जानकारी हुई तो वे अत्यंत परेशान हुईं और उन्होंने भगवान शिव के मना करने पर भी वहां जाने का निश्चय किया और नंदी पर सवार होकर अपने पीहर पहुंच गईं जहां यज्ञ समारोह की तैयारी हो रही थी। उन्होंने अपने पिता दक्ष से जब कारण पूछा तो उन्हें भगवान शिव के प्रति घोर अपमान का सामना करना पड़ा जिसे वे सहन न कर सकीं और उन्होंने यज्ञ कुंड में अपने प्राणों की आहुति दे दी।
इस घटना से क्रोधित भगवान शिव ने मृत सती का शव लेकर तांडव नृत्य करते हुए समस्त लोकों में विचरण करना आरंभ कर दिया। यह देखकर भगवान विष्णु को अत्यधिक चिंता हुई क्योंकि इससे सृष्टि का संतुलन बिगड़ रहा था तब उन्होंने अपने सुदर्शन चक्र से देवी सती के शरीर को 51 टुकड़ों में विभाजित कर दिया। माता सती के यह अंग और आभूषण धरती पर जहां गिरे, वहां किसी विशेंष देवी का उद्भव हुआ, जिससे वहां शक्तिपीठों की स्थापना हुई।
जशोरेश्वरी देवी मंदिर में देवी सती के हाथ गिरने का संकेत मिलता है इससे वहां माता के हाथ गिरने से जशोरेश्वरी देवी उत्पन्न हुईं जो माता काली का प्रतिरूप मानी जाती है इन्हें यशोरश्वरी या यशोर नाम से भी जाना जाता है। अन्य मान्यता के अनुसार यहां देवी सती के हाथ और पैर के तलवे गिरना माना जाता है। माता सती के इस स्वरूप के साथ यहां भगवान शिव जो शक्तिपीठों के रक्षक रूप में भगवान भैरव कहलाते हैं, यहां इन्हें चंडा यानी चंद्र नाम से जाना जाता है।
पवित्र तीर्थस्थल के रूप में विश्व विख्यात यह मंदिर कब बना इसकी तिथि अज्ञात है लेकिन कहते हैं कि इसे अनारी नाम के ब्राह्मण व्यक्ति ने बनवाया था, इसमें विशेष बात है कि मंदिर में प्रवेश के लिए सौ दरवाजे बने थे लेकिन इनका स्वरूप कब बदल गया, इस बारें में किसी को कुछ ज्ञात नहीं है।
राजा लक्ष्मण सेन और प्रताप आदित्य ने अपने समय में इस मंदिर का पुर्नोद्धार कराया। महाराजा प्रताप आदित्य और विक्रमादित्य की राजधानी धूमघाट में स्थित थी। कहते हैं इन्हें झाड़ियों में से चमकदार प्रकाश का दिव्य आभास हुआ जो मानव हथेली के आकार के किसी पत्थर से आ रहा था, इस हाथ को माता सती के हथेली माना गया और यहां यशोरेश्वरी देवी की स्थापना हुई। ऐतिहासिक तथ्यों के अनुसार इस मंदिर की स्थापना को 13वीं सदी का माना जाता है।
मंदिर की मौलिक स्थापत्य कला में एक ढका हुआ हॉल हुआ करता था जिसे नटमंदिर कहा जाता था, इसका उपयोग देवी के दूर से दर्शन और अन्य सांस्कृतिक गतिविधियों के लिए किया जाता था। लेकिन 1971 के समय जब बांग्लादेश मुक्ति अभियान चल रहा था, उस समय इस मंदिर का अधिकांश भाग नष्ट कर दिया गया, जहां केवल पत्थर के खंभे ही बचे जो तीर्थ दर्शन करने आए, श्रद्धालुओं के लिए परम पावन रूप में पूज्य हैं।
वर्तमान में इस मंदिर की विशेष घुमावदार छतें और अंलकृत जटिल नक्काशी बंगाली स्थापत्य कला की देन है। मुख्य मंदिर में एक शानदार केंद्रीय गुबंद है जो प्रार्थना कक्ष के ऊपर बना हुआ है और आकाश में अद्भुत आकृति बनाती है।
मंदिर का प्रवेश द्वार हिंदू धर्म ग्रंथों का चित्रण उकेरती हुईं उत्कृष्ट पत्थर की नक्काशी से सुशोभित है जिसमे देवी सती और विभिन्न देवी देवताओं के दृश्य देखने को मिलते हैं। मेन गेट पर फूलों की आकृतियां इस क्षेत्र की कला और संस्कृति का मनोहारी प्रदर्शन करती हैं।
विस्तृत प्रार्थना सभागार में कम से कम 100 भक्तों के बैठने की जगह है जहां दीवारें बंगाली परंपराओं की सजीव डिजाइने प्रदर्शित करती है। यहां बनी विशाल झरोखों की वजह से धूप और हवा का बढिया आवागमन है जहां ठंड या गर्मी के मौसम में भी स्थिति आरामदायक रहती है।
शक्तिपीठ के केंद्र में जहां माता सती की हथेली उतरी थीं वहां एक भूमिकत कक्ष है जिसमें विशाल पाषाण प्रतिमा अवस्थित है जो परम पवित्र स्थान है। इस कक्ष में जाने के लिए पत्थर की सीढियां बनी हुई हैं।
मंदिर परिसर में कई विशाल और छोटे मंदिर बने हुए है जिसमें कई सारे देवी देवताओं की उपस्थिति देखने को मिलती है। यहां मौजूद ध्यान क्षेत्र में आध्यात्मिक माहौल और उसकी शांति तन मन को भीतर तक सुकून प्रदान करती है। यहां अवस्थित पेड़ वन पौधे उपवन कई सारी घटनाओं के मौन गवाह हैं साथ ही मंदिर परिसर का पवित्र तालाब इस आध्यात्मिक स्थल की महत्ता को और भी ज्यादा बढाता है।
जशोर की देवी जशोरेश्वरी मंदिर में मुख्यतः पूजा पाठ मंगलवार और शनिवार को होती है जिसे काली जी के विशेष दिनों में गिना जाता है। इन दिनों यहां दिन में विशेष अनुष्ठानों का आयोजन किया जाता है। कहते हैं कि 1971 के पहले यहां प्रतिदिन पूजा आदि कार्यक्रम होता था, जो आज केवल पुजारी द्वारा मंगलवार और शनिवार को किया जाता है।
मंदिर दर्शन के लिए प्रातःकालीन समय : सुबह 6 बजे से
मंदिर बंद होने का सायंकालीन समयः रात 8 बजे तक
जशोर क्षेत्र में बने इस शक्तिपीठ में सबसे मुख्य त्यौहार काली पूजा है जब यहां विशाल मेले और भव्य आयोजन का उत्सव मनाया जाता है। वर्ष में एक बार होने वाली यह काली पूजा रात भर भक्तों के लिए बहुत महत्वपूर्ण होती है जिसमें वह मां की आराधना करने के लिए यहां हजारों दीपों की प्रज्वलित श्रृंखलाओं से सजाते हैं जिससे यहां मंत्रमुग्ध कर देने वाले वातावरण का निर्माण होता है। मां की आराधना और उन्हें प्रसन्न करने के लिए भव्य सामग्रियों से बना भोग प्रसाद अर्पित किया जाता है।
यहा मनाए जाने वाले उत्सवों में नौ दिनों के नवरात्रि उत्सव की भी भव्य धूम होती है जिसमें हजारों की संख्या में भक्तजन शक्तिपीठ आते हैं, इन दिनों यहां हर दिन धार्मिक अनुष्ठानों और बंगाली संस्कृति को सजीव कर देता है। नृत्य, भजन गीतों और सांस्कृतिक प्रस्तुतियों से मंदिर परिसर गुजांएमान हो जाता है।
इस दौरान प्रमुख हस्तियां और कलाकार यहां आकर मां का आशीर्वाद प्राप्त करते हैं, प्राचीन शक्तिपीठ की शोभा यहां मनाए जाने वाले समारोहों के दौरान अपनी दिव्यता की चरम स्थिति पर होती है।
साल 2021 में भारतीय प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने इस मंदिर में दर्शन और मत्था टेकने के साथ ही यहां मां जशोरेश्वरी को सोने का मुकुट अर्पित किया। यात्रा के दौरान इस मंदिर को एक बार फिर से विश्वस्तरीय प्रसिद्धि और पहचान मिली जिससे इसे पुनः जीवन और ऐतिहासिक प्रतिष्ठा मिली।
साल 2024 में हिंदू विरोधी दंगों के दौरान इस मुकुट को चोरी कर लिया गया।
इस मंदिर में मौजूद देवी जशोरेश्वरी की शक्तिशाली पत्थर की मूर्ति स्थापित है जिसके लिए कहा जाता है कि इस दिव्य प्रतिमा को स्पर्श मात्र कर लेने से दिव्यता का आभास होता है जिससे चिकित्सात्मक ऊर्जा प्राप्त होती है।
मंदिर की शांति और आध्यात्मिक आभा तन और मन को भीतरी शांति और सुकून प्रदान करती है। ताजे फूलों की खुशबू और मनमोहक दीपों की कांति से मंदिर परिसर में आए हर किसी को अनोखा आनंद प्राप्त होता है। सुबह और शाम भक्तिपूर्ण गीतों और मंदिर की घंटियों से गुजांएमान परिसर अपनी प्राकृतिक और धार्मिक खूबसूरती को बिखेरता है।
बेनोपोल भूमि बंदरगाहः बांग्लादेश के सबसे बड़े स्थलीय बंदरगाह के रूप में यह जगह प्रसिद्ध है जहां आप घूमकर आप यहां की संस्कृति और रहन सहन से परिचित हो सकते हैं। यहां आप बांग्लादेश का व्यापार दर्शन कर सकते है।
गोदखली पुष्प उद्यानः तकरीबन 1500 हेक्टेयर क्षेत्रफल में बना यह उद्यान रंग बिरंगे पुष्पों और उनकी खेती के लिए जाना जाता है जहां शानदार पृष्ठभूमि की रौनक में फोटोग्राफी का आनंद ले सकते हैं। ताजी और भीनी खुशबू में मध्धम हवा का आनंद लें। इस उद्यान को बांग्लादेश की पुष्प राजधानी भी कहते हैं।
झापा बाओर झीलः सुंदर और शांत गोखुर के रूप में प्रसिद्ध यह अर्धचंद्राकार झील में नाव की सवारी और फिशिंग का आनंद ले सकते हैं और फोटोग्राफी के लिए यह स्थान सर्वश्रेष्ठ है जहां आप यहां की सुदंरता को कैमरे में कैद भी कर सकते हैं।
हवाई मार्ग से
रेल मार्ग से
सड़क मार्ग से
जशोरेश्वरी शक्तिपीठ के कई नाम है लेकिन सभी का सार एक ही है। आध्यात्मिक और धार्मिक परिप्रेक्ष्यों को साकार करता यह शक्तिपीठ अपनी सदियों की दास्तां को साझा करता है। पौराणिक उत्पत्ति से लेकर जीवंत सांस्कृतिक केंद्र के रूप में अपनी पहचान स्थापित करता यह शक्तिपीठ न जाने कितने रत्न रहस्यों को अपनी छांव में सहेजे हुए है। आत्म साधना की दृष्टि से जशोरेश्वरी शक्तिपीठ हर धर्म, अनुयायी और विभिन्न मान्यता को मानने वालों के लिए अपने द्वार खोले हुए है, जहां सभी को आशीर्वाद का शुभफल प्राप्त होता है।





